बुद्ध पूर्णिमा पर जाने- बुद्ध का हृदय करुणाशील था, ‘जैसे उनके हृदय में करुणा का सागर हिलोरें ले रहा हो। यह करुणा ही उनके सूत्रों को मानवता के कल्याण का प्रेरक बनाती है। उनका उद्देश्य केवल चाहरी दुनिया की बदलना नहीं था, बल्कि अंदर की स्थिति को बाहरी जगत से एकीकृत करना था।
बुद्ध पूर्णिमाः सिद्धार्थ से बुद्धत्व तक की यात्रा
बुद्ध-का एक प्रसिद्ध धम्मसूत्र है- मनुष्य का जीवित रहना भी दुर्लभ है, सद्धर्म का अवण करना भी दुर्लभ है और बुद्धों का उत्पन्न होना भी दुर्लभहै। मनुष्य होना इतना आसान नहीं है, इतना सरल नहीं है। हालांकि हमें यही लगता है कि डेढ़ अरब से अधिक जनसंख्या अकेले भारत की ही है। इसका मतलब मानव जन्म सुलभ है, तभी तो सब पैदा हो गए।
बुद्ध-पूर्णिमा (12 मई)
पर बुद्ध ने कुछ सोच-समझकर ही ऐसा कहा होगा क्योंकि बुद्ध ऐसे व्यक्ति है, जो सिर्फ बोलने के लिए कोई बात नहीं बोलते, अल्किा विज्ञान, तर्क, बुद्धि, विवेक आदि का उपयोग करने के चाद ही मुख से वचन निकालते हैं। उनके कहने का अभिप्राय यह है कि सिर्फ मनुष्य का शरीर पाया तो क्या पाया, अगर मनुष्यता नहीं पाई तो मनुष्य कहां से हुआ। मनुष्य शरीर कीमती है, निश्चित ही कीमतों है, लेकिन मनुष्य का शरीर मिल गया, अब और कुछ नहीं चाहिए, ऐसा नहीं है।
एक समान्य व्यक्ति से भगवान बनने की कहानी
जैसे गुलाब का बीज तुम्हारेर हाथ में हो, लेकिन उसवीज को जब ज को जब तक तुम धरती में नहीं डालो और वह पौधा न बने, उसमें पूरण न लगे, तब तक आप उस बीज से निकलने वाले फूलों की खुशबू नहीं ले सकते। तुम खाली चीज को सुंघों तो क्या खुशबू आएगी? इसी तरह से मनुष्य का शरीर भी एक बीज की तरह है। इस बीज को अगर साधना की भूमि में डाल दिया, ज्ञान के जल से सींच दिया, तप के द्वारा इसको पकने दिया तो फिर मनुष्यता का जन्म हो जाएगा। अन्यथा तो बीज रूप से पैदा हुए और बीज-रूप से मर गए, फूल बन ही नहीं पाए।
बुद्ध पूर्णिमा वही दिन है
बुद्ध पूर्णिमा वही दिन है, जब बुद्ध का जन्म हुआ था। एक बड़ी अद्भुत बात है कि पूर्णमासी के दिन बुद्ध का जन्म हुआ और पूर्णमासी केही दिन इनको संबोधि भी प्राप्त हुई, फिर इसी पूर्णमासी पर हो इनका निर्वाण भी हुआ। यह एक बड़ी विलक्षण बात है कि जिस दिन जन्म हुआ, उसी दिन ज्ञान भी और पूर्णमासी को ही नियांण को प्राप्त हुए। मेरी दृष्टि में बुद्ध पूर्णिमा का दिन बहुत विशेष है। भले ही बुद्ध आन हमारे बीच नहीं है, भले ही तथागत शरीर से श्वास लेते हुए, चलते-फिरते हुए दिखते नाहीं है, पच्चीस सौ वर्षों का अंतर पड़ गया है। पच्चीस सौ साल पहले बुद्ध चले गए, विदा हो गए, लेकिन इसके बावजूद आन के दिन बुद्धत्व की ऊर्जा का विस्फोट और वितरण अप भी होता है।
राजा-महाराजा के जन्म दिन के अवसर
फाले राजा-महाराजा के जन्म दिन के अवसर पर कई लोगों को फांसी तक माफा हो जाती थी,उपहार दिए जाते थे। बुद्ध तो सम्राटों के भी सम्राट थे, राजाओं के भी राजा थे। बुद्ध पूर्णिमा का दिन सिर्फ उनका जन्मोत्सव ही नहीं, उनका मरणोलरव भी है, उनका ज्ञानोत्सव भी है और उनका संबोधि उत्सव भी है।
बुद्ध के सूत्रों में ही एक सूत्र है, जिसमें आपने कहा कि बुद्ध की स्थिति से तो देवता भी ईष्यां करते हैं, संबोधि देवताओं को भी उपलब्ध नहीं है। उनकी संबोधि से जुड़ी एक घटना है कहा जाता है कि बुद्ध इतने गहरे लीन हुए कि सब देवता घबराए कि अरे। इतनी मुश्किल से तो संबोधि मिलती है और अगर यह लीन हो जाएंगे तो विश्य का कल्याण कैसे होगा?
आकर विनती करते हैं कि हे युद्धदेव
सब देखता उपस्थित हुए और आकर विनती करते हैं कि हे युद्धदेव। आप लीन न होइए, आप जाग्रत रहिए और जो कुछ आपको मिला है, उस ज्ञान को सारे विश्व को दोजिए। देवताओं की प्रार्थना सुनकर बुद्ध ने कहा कि जिसे खोजना होगा, वह खोज ही लेगा। जैसे मैंने बिना किसी गुरु के खोज लिया, ऐसे ही दूसरे भी खोज लेंगे। फिर देवों ने कहा कि सब बुद्ध नहीं है, सब सिद्धार्थ नहीं हैं, इसलिए हे चुद्ध ! आप लीन न सोदए, आप अभी निर्वाण में मत नाइए। अंततः देवों की प्रार्थना की बुद्ध ने स्वीकार किया। कहा जाता है कि देवता तो अदृश्य हो गए और बुद्ध ने अपने दायें हाथ से धरती को स्पर्श किया और क्या-हे धरती! तू इस बात की साक्षी रहना कि बुद्ध ने महानिर्वाण को अस्वीकार किया, ताकि जगत का कल्याण हो सके।
आज भी अगर कोई चाहे तो
आज भी अगर कोई चाहे तो अपने ध्यानस्थ मन के साथ बुद्ध से जुड़ सकता है, क्योंकि बुद्ध ने कहा था कि मैं शरीर से छोड़ रहा हूं, लेकिन मेरे शरीर के बाद होने वाले साधकों के लिए, उनकी सहायता करने के लिए में रुका रहूंगा। इसलिए बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर मौन रहें, ध्यान करें, एकाग्रचित्त हीं, अपने चित्त का शोध करें, तप करें,
जीवन की बड़ी उपलब्धि है आत्म-ज्ञान का होना
वर्तमान में व्यक्ति पदार्थजनित ज्ञान में दक्ष है। व्यक्ति का सारा ज्ञान पदार्थ से जुड़ा हुआ है इसलिए वह आत्म-ज्ञान से वंचित है। एक अज्ञानी आदमी पदार्थ का उपभोग करता है और ज्ञानी आदमी पदार्थ का आवश्यकतानुसार उपयोग करता है। दुनिया में जितनी भी समस्याएं हैं, वे सारी अज्ञानता के कारण हैं। समस्याओं से मुक्ति ज्ञान-चेतना के जागरण से ही मिल सकती है।
एक आत्मज्ञानी समस्याओं को भोगता नहीं
एक आत्मज्ञानी समस्याओं को भोगता नहीं, वह उसको जानता और देखता है इसलिए वह सदा पदार्थ जनित समस्याओं के दुख से मुक्त रहता है। आत्म-ज्ञानी को पदार्थ व इंद्रिय विषय कभी प्रभावित नहीं करते हैं। वह पदार्थ के बीच में रहकर भी पदार्थ से अलग रहता है। आत्म-ज्ञानी सदा देह में रहते हुए विदेह में रहने की कला जानता है। यह एक आत्म ज्ञानी की विशेषता होती है।
आदमी संवेदना का जीवन जीता है।
आदमी संवेदना का जीवन जीता है। विदेह में रहने का अर्थ होता है कि संवेदना से ऊपर उठकर ज्ञाता और द्रष्टा की भूमिका में रहना। आत्मा का मूल स्वरूप है-ज्ञाता और द्रष्टा। हमारे जीवन का उद्देश्य है कि अपने स्वरूप का शोधन कर ज्ञाता द्रष्टा का अनुभव करना। अज्ञानता, विकृति तथा मनकी मलिनता आत्मा के बंधन हैं। आत्मज्ञान के लिए आवश्यक है आत्मा पर आए हुए कषायरूपी आवरणों को तोड़ना।
जब तक ज्ञान का प्रकाश प्रकट नहीं होगा
जब तक ज्ञान का प्रकाश प्रकट नहीं होगा, चित्त का शोधन नहीं होगा तथा मन की मलिनता का परिमार्जन नहीं होगा, तब तक हम संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे और स्व स्वरूप के बोध से अनभिज्ञ रहेंगे। हम परम आनंद से तभी साक्षात्कार कर पाएंगे, जब हमारी चेतना का ऊर्ध्वारोहण होगा। चेतना के ऊर्ध्वारोहण से ही हम निर्बाध आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। जिन्होंने आत्मज्ञान के द्वारा संपूर्ण अज्ञान के तिमिर को नष्ट कर दिया है, राग और द्वेष को क्षय कर दिया है, उनका आत्म-ज्ञान परम-मुक्ति से साक्षात्कार उसी प्रकार करवा देता है, जैसे सूर्य के प्रकाश के आते ही सब कुछ स्पष्ट दृष्टि गोचर होने लग जाता है।
आत्मा अपने निज स्वभाव से स्वतंत्र है,
आत्मा अपने निज स्वभाव से स्वतंत्र है, शुद्ध है, निर्मल है, अखंड और अविनाशी है। आत्म ज्ञानी अपने सम्यक् पुरुषार्थ से, सद्गुरु और संतों की संगत से अपने मूल स्वभाव से अवस्थित हो जाता है। हमारी आत्मा में ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनंद के अजस्र स्रोत को प्राप्त करने के लिए सम्यक् तप, सम्यक् चिंतन और सम्यक् पुरुषार्थ की आवश्यकता है। जैसे मक्खन की प्राप्ति के लिए दूध को गर्म करना पड़ता है, फिर उसे दही बनाना पड़ता है, फिर उसे मथना पड़ता है, तब मक्खन की प्राप्ति होती है। वैसे ही हम ध्यान, ज्ञान और तप के मंथन से आत्मा के आनंद से साक्षात्कार कर सकते हैं।
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