श्रम-विभाजन और जाति प्रथा डॉ भीमराव अंबेडकर
जीवन-परिचय
जीवन-परिचय डॉ० भीमराव अम्बेदकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 ई० में महू, मध्य प्रदेश में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा के उपरान्त उच्चतर शिक्षा हेतु वे न्यूयॉर्क (अमेरिका) गए। तदुपरान्त लंदन (इंग्लैंड) जाकर अध्ययन किये। वे अपने समय के सुपठित जनों में से एक थे। बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले से प्रेरित बाबा साहेब अछूतों, महिलाओं और मजदूरों को मानवीय अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए आजीवन संघर्षरत रहे । भारत के संविधान निर्माण में उनकी महती भूमिका और एकनिष्ठ समर्पण के कारण ही हम आज उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता कहकर श्रद्धांजली अर्पित करते हैं। उनकी समूची बहुमुखी विद्वता एकांत ज्ञान-साधना की जगह मानव-मुक्ति व जनकल्याण के लिए थी। दिसम्बर, 1956 ई० में दिल्ली में बाबा साहेब का निधन हो गया।
रचनाएँ
- 1. द कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज्म,
- 2. जेनेसिस एंड डेवलपमेंट,
- 3. द अनटचेबुल्स हू आर दे,
- 4. हू आर शूद्राज;
- 5. बुद्धिज्म ऐंड कम्युनिज्म,
- 6. बुद्धा एण्ड हिज धम्मा,
- 7. थॉट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स,
- 8. द शड्ज ऐंड फॉल द हिन्दू वीमेन,
- 9. एनीहिलेशन ऑफ कास्ट ।
हिन्दी में अंबेदकर का संपूर्ण साहित्य भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय द्वारा 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है।
प्रमुख रचनाएँ
प्रमुख रचनाएँ-द कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट, हू आर शूद्राज; बुद्धा एण्ड हिज धम्मा, एनी हिलेशन ऑफ कास्ट, द अनटचेबल्स, हू आर दे आदि ।
साहित्यिक विशेषताएँ
साहित्यिक विशेषताएँ-बाबा साहेब के साहित्य में शोषित, पीड़ित एवं दलित जनों की आवाज उठाने का प्रयत्न किया गया है। उनका संपूर्ण साहित्य मानव-मुक्ति एवं जन-कल्याणार्थ था ।
भाषा-शैली
भाषा-शैली-डॉ० अंबेदकर के लेखन की भाषा मूलतः अँग्रेजी थी। उन्होंने चिंतनपरक और वर्णनात्मक शैली में लेखन किया है।
पाठ-परिचय
पाठ-परिचय-प्रस्तुत पाठ बाबा साहेब द्वारा 1936 में लाहौर में आयोजित जाति-पाँति तोड़क सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया। अँग्रेजी रूपांतर ‘एनी हिलेशन ऑफ कास्ट’ का ललई सिंह यादव द्वारा हिन्दी अनुवादित रूप है। इस आलेख के माध्यम से लोगों में मानवीयता, सामाजिक सद्भावना, समरसता जैसे मानवीय गुणों का विकास करने का प्रयत्न किया गया है।
जातिवाद को बढ़ावा देने वाला
जातिवाद को बढ़ावा देने वाला-लेखक के अनुसार आज समाज में कई लोग जातिवाद को बढ़ावा देने वाले हैं। आधुनिक सभ्य समाज में कार्य-कुशलता के लिए श्रम-विभाजन की आवश्यकता है। किंतु श्रमिकों का विभाजन जातीयता के आधार पर नहीं होना चाहिए। जातिगत विभाजन से ऊँच-नीच की भावना उत्पन्न होती है जो भारत के अलावे अन्य देशों में नहीं पायी जाती है।
श्रम विभाजन रूचि के अनुसार नहीं आज श्रम
श्रम विभाजन रूचि के अनुसार नहीं आज श्रम-विभाजन मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। व्यक्ति के कार्य का निर्धारण जाति के आधार पर गर्भधारण के समय से ही कर दिया जाता है। जन्मजात कार्य से बँधकर श्रमिक आधुनिक समयानुसार कार्यकुशल नहीं हो पाते हैं। सक्षम श्रमिक समाज के निर्माण हेतु व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित किया जाय जिससे वह अपने पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके । उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक विकासशील एवं परिवर्तनशील होने के चलते मनुष्य को पेशा बदलने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए ताकि भूखों मरने की परिस्थिति से जूझना नहीं पड़े। जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी को बढ़ाने का एक प्रमुख कारण है।
जाति प्रथा में दोष
जाति प्रथा में दोष-श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा कई गंभीर दोषों से युक्त है। इस प्रथा में व्यक्ति की रुचि का कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। लोगों का अरुचि तथा विवशतापूर्ण करना गरीबी की अपेक्षा अधिक दुखदायी समस्या है। जाति प्रथा मनुष्य की प्रेरणा, कुशलता और आत्मशक्ति का दमन कर सामाजिक नियमों में बाँधकर उसे निष्क्रिय बना डालती है। अतः यह निर्विवाद सिद्ध है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकर प्रथा है।
लोकतंत्र की स्थापना
लोकतंत्र की स्थापना-लेखक के अनुसार आदर्श समाज का आधार स्वतंत्रता, समानता तथा भाईचारा है। सभ्य समाज में सभी वर्गों का हित निहित होता है। डॉ. अम्बेदकर ने स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र, समता और भ्रातृत्व की भावना पर बल दिया है। इसमें सबकी सहभागिता और बहुविध हितों का ध्यान रखना चाहिए। दूध पानी के मिश्रण की तरह ही हमारा, लोकतंत्र है।
कुछ महत्वपूर्ण लिंक – श्रम विभाजन और जाति प्रथा
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