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विद्युत परिपथ: किसी विद्युत धारा के सतत तथा बंद पथ को विद्युत परिपथ कहते है।
विद्युत धारा : विद्युत आवेश के प्रवाह की दर को विद्युत धारा कहते हैं।
इसका S.1. मात्रक एम्पीयर होता है।
1-q/t ,जहाँ I= विद्युतधारा, q = आवेश, 1= लगा समय
विद्युत विभव
एकांक धनावेश को अनंत से विद्युत क्षेत्र में किसी बिंदु तक लाने में किए गए कार्य को उस बिंदु पर विभव कहते है। विभव का S.I. मात्रक वोल्ट (v) होता है। पृथ्वी का विभव शून्य माना गया है। v=w/Q
विभवांतर
विभवों के अंतर को विभवांतर कहते है। इसका मात्रक भी वोल्ट ही होता है। इसे वोल्टमीटर से मापा जाता हे।
- एक कुलॉम आवेश की रचना करने वाले इलेक्ट्रानों की संख्या 6.25 x10″ होती है।
- सेल के द्वारा चालक के सिरों पर विभवांतर बनाए रखा जाता है।
चालक
जिस पदार्थ से धारा प्रवाहित हो सके चालक कहलाता है जैसे सोना, चाँदी, ताँबा इत्यादि ।
अर्द्धचालक
जिस पदार्थ की विशिष्ट चालकता, चालक तथा अचालक के बीच हो उसे अर्द्धचालक कहते है । जैसे जमेनियम (Ge) तथा सिलिकन (si)
प्रतिरोध
किसी चालक में इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह का विरोध ही प्रतिरोध कहलाता है। इसका S.I. मात्रक ओम (2) होता है। किसी चालक का प्रतिरोध उसकी लम्बाई पर सीधे उसकी अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल पर प्रतिलोमतः निर्भर करता है और उस पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है जिससे वह बना है।
प्रतिरोधकता
चालक पदार्थ के इकाई अनुप्रस्थ परिच्छेद वाले इकाई लम्बाई के छड़ का प्रतिरोध उसका प्रतिरोधकता या विशिष्ट प्रतिरोध कहलाता है। इसे p से सूचित किया जाता है। इसे सूत्र P=RA/L से व्यक्त किया जाता है। इसका मात्रक ओममीटर (2-m) होता है।
आमीटर
जिस यंत्र के द्वारा विद्युत परिपथ में प्रवाहित होने वाली धारा को मापा जाता है, आमीटर कहलाता है। इसे विद्युत परिपथ में श्रेणीक्रम में जोड़ा जाता है। इस यंत्र का प्रतिरोध बहुत कम होता है।
वोल्टमीटर
जिस यंत्र के द्वारा विद्युत परिपथ में दो बिंदुओं के बीच विभवान्तर मापा जाता है, वोल्टमीटर कहलाता है। इसे विद्युत परिपथ में समांतर क्रम में जोड़ा जाता है। वोल्ट मीटर का प्रतिरोध उच्च होता है।
दिष्टधारा
दिष्टधारा वैसी धारा जो विद्युत परिपथ में हमेशा एक ही दिशा में प्रवाहित होती है, दिष्टधारा कहलाती है।
प्रत्यावर्ती धारा
वैसी धारा जो विद्युत परिपथ में खास समय तक एक दिशा में और उत्तने ही समय तक विपरीत दिशा में प्रवाहित होती है, प्रत्यावर्ती धारा (A.C.) कहलाती है।
श्रेणीक्रम संयोजन
श्रेणीक्रम में संयोजित बहुत से प्रतिरोधकों का तुल्य प्रतिरोध उनके व्यक्तिगत प्रतिरोधों के योग के बराबर होता है।
- कॉनिया और नेत्र लेंस के बीच का माग जलीय द्रव (A.H.) या नेत्रोद से भरा होता है।
- लेंस और रेटिना के बीच का भाग काचाम द्रव (V.H.) से भरा होता है।
- पुतली का आकार आँख में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा नियंत्रित करता है।
- आँख में एक नेत्र लेंस होता है, रेटिना कैमरा के फिल्म के तरह काम करती है। आँखों में पलक कैमरे के शटर की तरह काम करती है।
- आँख में परितारिका (Ins) कैमरे के डायफ्राम के तरह काम करती है। रेटिना पर बने चित्र का प्रभाव 1/18 सेकेण्ड तक बना रहता है।
- सिनेमा में। सेकेण्ड में 24 स्थित चित्र पर्दे पर दिखाये जाते है।
- रेटिना पर वस्तु का प्रतिबिम्ब वस्तु की अपेक्षा उलटा और छोटा बनता है। मस्तिष्क में वस्तु को सीधा और बड़ा देखने की संवेदना होती है।
- वह निकटस्थ बिन्दु जहाँ पर स्थित किसी वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिम्ब रेटिना पर बने आँख का निकट बिन्दु (least distance of clear vision) कहा जाता है। एक स्वस्थ आँख के लिए निकट-बिन्दु 25 cm पर होता है।
- दूर बिन्दु और निकट बिन्दु के बीच की दूरी को दृष्टि परास कहते हैं।
- दृष्टि दोष: कई कारणों से नेत्र निकट स्थित या बहुत दूर स्थित वस्तुओं का स्पष्ट प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनाने की क्षमता खो देता है। यह कमी दृष्टि दोष (defects of vision) कहलाती है।
यह दोष मुख्यत तीन प्रकार के होते है।
निकट दृष्टि दोष (shortsightedness or myopia) इस दोष से पीड़ित आँख दूर स्थित वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख पता है।
कारण
- नेत्र गोलक का लम्बा हो जाना अर्थात् नेत्र लेंस और रेटिना के बीच की दूरी का बढ़ जाना
- नेत्र लेंस का आवश्यकता से अधिक मोटा हो जाना जिसके चलते उसकी फोकस दूरी का कम हो जाना
उपचार: इस दोष को अवतल लेस द्वारा दूर किया जाता है।
दूर दृष्टि दोष (Farsightedness or Hypermetropia) इस दोष से पीड़ित आँख निकट स्थित (25 cm) वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख पाता है।
कारणः
- नेत्र गोलक का छोटा हो जाना अर्थात् नेत्र लेंस और रेटिना बीच की दूरी का घट जाना
- नेत्र लेस का आवश्यकता से अधिक पतला हो जाना जिसके चलते उसकी फोकस दूरी का बढ़ जाना
उपचार इस दोष को उत्तल लेंस द्वारा दूर किया जाता है।
जरा दृष्टि दोष (Presbyopia) इस दोष से पीड़ित आँखों की मांसपेशियों में तेजी से सिकुड़ने की क्षमता नहीं रह जाती है जिसके चलते समंजन क्षमता घट जाती है। इससे आँख के निकट-बिन्दु के साथ-साथ दूर- बिन्दु भी प्रभावित होता है।
कारणः
आँख की समंजन क्षमता का घट जाना।
उपचार : बाइफोकल लेंस युक्त चश्मे के उपयोग से इस दोष को दूर किया जाता है।
मोतियाबिंदः
मोतियाबिंदः इस दोष से पीडित आँख का स्फटिक लेंस पारदर्शक न रहकर, दुधिया रंग का पारभासक (translucent) हो जाता है इससे आँख की रेटिना पर किसी वस्तु का तीव्र और स्पष्ट प्रतिबिम्ब नहीं बन पाता है। उपचारः मोतियाबिन्द दूर करने के लिए लेंस हटाकर नया कृत्रिम लेंस लगा दिया जाता है।
अपवर्तन के महत्वपूर्ण प्रभाव :
- वायुमंडलीय अपवर्तन के कारण तारे टिमटिमाते प्रतीत होते हैं।
- वायुमंडलीय अपवर्तन के कारण ही सूर्योदय से करीब 2 मिनट पहले सूर्य दिखाई पड़ जाता है और सूर्यास्त के 2 मिनट बाद तक सूर्य दिखाई पड़ता रहता है जिसके कारण सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच का समय लगभग 4 मिनट बढ़ जाता है।
- श्वेत प्रकाश कई रंगों का मिश्रण है।
- श्वेत प्रकाश का अवयवी रंगों में टूटना वर्ण विक्षेपण कहलाता है।
- काँच का प्रिज्म वर्ण विक्षेपण करता है।
- जलकणों से किया गया वर्ण विक्षेपण इन्द्रधनुष पैदा करता है।
- श्वेत प्रकाश से प्राप्त रंगीन प्रकाश की पट्टी को वर्णपट (स्पेक्ट्रम) कहते है। इन रंगों का क्रम VIBGYOR (बैजानीहपीनाला) होता है।
- बैगनी (violet) रंग के प्रकाश का तरंगदैर्ध्य सबसे कम और लाल (Red) रंग के प्रकाश का तरंगदैर्ध्य सबसे अधिक होता है।
- वर्ण-विक्षेपण में बैंगनी रंग का विचलन (deviation) सबसे अधिक और लाल रंग का विचलन सबसे कम होता है।
- किसी कण पर पड़कर प्रकाश के एक अंश को विभिन्न दिशाओं में छितराना प्रकाश का प्रकीर्णन (scattering) कहलाता है।
- प्रकीर्णन के कारण आसमान का रंग नीला दिखता है। सूर्योदय तथ सूर्यास्त के समय सूर्यका रंग तथा उसके इर्द-गिर्द लाल दिखना इसी के कारण होता है।
- किसी कोलॉयडी विलयन में निलम्बित कणों से प्रकाश के प्रकीर्णन को टिंडल प्रभाव कहते हैं।
- सूक्ष्म कण अधिक तरंगदैर्ध्य के प्रकाश की अपेक्षा कम तरंगदैर्ध्य के प्रकाश का प्रकीर्णन अधिक अच्छी तरह कहते हैं।
- कणों के आकार के बढ़ने के साथ-साथ अधिक तरंगदैर्ध्य के प्रकाश का प्रकीर्णन अधिक होने लगता है। काफी बड़े कण सभी रंगो के प्रकाश का लगभग समान रूप से प्रकीर्णन करते हैं।
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