मोबाइल का गुलाम बन रहे हैं हम - पढीए पूरी खबर

मोबाइल का गुलाम बन रहे हैं हम – पढीए पूरी खबर

मोबाइल का गुलाम बन रहे हैं हम – वयरल हुआ एक मैसेज मोबाइल फोन से पैदा हुई परेशानियों व को खूब बयां करता है। मैसेज कुछ यूं था- मैं मंजू गुप्ता, मुझे एहसास हुआ कि मेरे परिवार वाले मुझसे ज्यादा अपने मोबाइल के करीब हो गए हैं। । मेरे बच्चे लाइक्स के लिए पागल हैं। इसलिए मैं अपने परिवार के लिए नियम बना रही हूं कि सब लोग सुबह उठते ही फोन नहीं, सूर्य देवता के दर्शन करेंगे। सबको एक साथ डायनिंग टेबल पर खाना होगा और फोन हमेशा टेबल से 20 कदम दूर रहेगा।

बाथरूम जाते वक्त सब अपने फोन बाहर रखेंगे। यदि कोई नियम तोड़ता है, तो वो एक महीने तक बाहर से खाना नहीं मंगा सकेगा।’ एक ऐसी ही दूसरी खबर भी दिलचस्प लगेगी, जिसमें अमेरिका की एक योगर्ट कंपनी सिग्गी ने लोगों को एक चैलेंज के तहत अपना फोन एक महीने तक बंद रखने व दुनिया के साथ जुड़ने के लिए आठ लाख रुपये की पेशकश की।

दरअसल मोबाइल फोन है ही ऐसी चीज। वर्ष 1995 में पहली बार भारत में शुरू हुई मोबाइल सेवा ने हमें कहां से कहां पहुंचा दिया है। आज इस छोटे से डिब्बे से पढ़ाई, शॉपिंग, बैंकिंग, फोटोग्राफी करने से लेकर मनोरंजन जैसे कई करिश्मे अंजाम दिए जा सकते हैं। बड़ी ही स्मार्टनेस के साथ ये मोबाइल फोन सहूलियतें देने की कीमत पर हमारी जिंदगी से बहुत कुछ छीन रहा है, और हमें इसका अहसास ही नहीं हो रहा।

वेलनेस कोच रीना सिंह कहती हैं, ‘मोबाइल ने अलादीन के चिराग वाले जिन्न की तरह हमें बहुत कुछ दिया है, इसने हमारी जिंदगी में कई सारी सुविधाएं एक जगह लाकर रख दी हैं, लेकिन अपनी आदतों पर नियंत्रण न रख पाने की वजह से हम खो भी बहुत कुछ रहे हैं। शारीरिक व मानसिक सेहत ही नहीं, भावनात्मक स्तर पर भी। यहां मैं एक विज्ञापन का जिक्र करना चाहूंगी, जिसमें दिखाया गया है कैसे एक महिला अपने युवा बेटे से सोशल मीडिया पर खुद का अकाउंट बनाने के लिए आग्रह कर रही है

ताकि वह उससे ऑनलाइन चैटिंग कर सके। वजह, घर में होते हुए भी उससे उसके बेटे की बात नहीं हो पाती, क्योंकि वह हमेशा मोबाइल पर लगा रहता है। अब आमतौर पर लोग बात करने के बजाय अपने मोबाइल स्क्रीन पर स्क्रोल करना पसंद करते हैं। एक शोध में 74 फीसदी पेरेंट्स ने माना कि उनके स्मार्टफोन के ज्यादा उपयोग से बच्चों के साथ उनके रिश्ते खराब हो रहे हैं। एक समाज के नाते, अगर हमने अपनी आदतों को सुधारा नहीं, तो यही स्मार्टफोन आपको बेवकूफ, असामाजिक और अस्वस्थ बना देगा।’

आप मानें या न माने, लेकिन अपने सभी जवाबों के लिए स्मार्टफोन पर ज्यादा निर्भरता मानसिक आलस्य का कारण बन सकती है। जर्नल मेमोरी में प्रकाशित एक शोध में इस बात की पुष्टि भी हुई है। एक सर्वे में शामिल लोगों को जब शोधकर्ताओं ने कठिन सवालों के जवाब गूगल पर ढूंढने की अनुमति दी, तो उन्होंने सरल सवालों के जवाब के लिए भी सर्च इंजन की ओर रुख किया। वहीं जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में न्यूरो साइकियाट्री की क्लीनिकल डायरेक्टर सुसैन लेहमैन कहती हैं कि स्मार्टफोन चीजों को याद 3 करने की हमारी दिमागी क्षमता में बाधा डालते हैं। जब आप इन उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं, तो आप अकसर बातचीत के बीच तेजी श्री से स्विच कर रहे होते हैं। आपकी एकाग्रता में बार-बार हो रहे ये बदलाव किसी तथ्य या विचार को यादों में पर्याप्त रूप से दर्ज होने से रोकते हैं।

रीना सिंह कहती हैं कि आभासी दुनिया के भटकाव ने एक तरह से लोगों को उनके दोस्तों, परिवार और प्रियजनों से भी अलग किया है। एक शोध में पाया भी गया है कि 80 फीसदी माता-पिता तब भी अपना समय स्मार्टफोन पर बिताते हैं, जब वे अपने बच्चों के साथ होते हैं। वहीं एक सर्वे में शामिल 69% लोग मानते हैं कि जब वे अपने स्मार्टफोन में डूबे होते हैं, तो वे अपने बच्चों परिवेश व लोगों का ध्यान खो देते हैं, जिसका असर उनके रिश्ते पर हो रहा है। ऐसा नहीं होता, तो फोन से दूर होने पर किसी किशोर की आत्महत्या की खबर या इसके कारण पति-पत्नी में अलगाव की खबरें ना आतीं।

फोन से ज्यादा चिपकना सेहत को भी नुकसान पहुंचा रहा है। ब्रिटिश न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट डॉ. अल्वारो बिलवाओ कहते हैं कि छह साल से कम उम्र के बच्चे के हाथ में मोबाइल देकर हम उनसे उनकी क्रिएटिविटी व बचपन की स्मृतियों को मन में संजोकर रखने की क्षमता भी छीन रहे हैं। इससे उनमें डिप्रेशन, अटेंशन डेफिसिट डिसऑर्डर जैसी समस्याएं हो सकती हैं। चौंकाने वाली खबर यह भी है कि 2050 तक लोग स्मार्टफोन्स का इस्तेमाल बंद कर देंगे। इसकी जगह इंटरफेस के जरिये इंसानी दिमाग को इंटरनेट से कनेक्ट किया जाएगा। मतलब, कॉल करना हो, खाना ऑर्डर करना हो, बस इस बारे में सोचिए और काम हो जाएगा। फिलहाल स्मार्टफोन के शिकंजे से अपने दिमाग को बाहर निकालने की जरूरत है। वरना हम टेलीपैथी टेक्नीक से पहले ही रोबोट में बदल जाएंगे।

  • सोशल मीडिया की एक यूजर सारा लाफी बताती है कि जब उन्होंने फोन के बिना ए एक नया दिन शुरू करने का फैसला किया, तो पहले दिन बिना गूगल मैप के घर से बाहर निकलने में असहजता महसूस हुई। लेकिन उन्हें आश्चर्य हुआ कि वह बिना खोए अपने गंतव्य तक समय पर पहुंच गई और हर दिन से ज्यादा काम किया और वह भी बिना विलंब किए।
  • सप्ताह में कम से कम एक दिन अपना फोन बंद करने का प्रयास करें और देखें कि आप इसके बिना पूरे दिन में क्या हासिल कर सकते हैं। शायद आप उन चीजों को देख पाएंगे जिन पर आपने पहले ध्यान नहीं दिया था। यहां तक कि इसके बिना अपना मनोरंजन करने के तरीकों के बारे में भी सोच पाएंगे।

अगर कहें कि अपने जीवनकाल में मोबाइल में मौजूद सोशल मीडिया ऐप्स पर बिताए गए समय में आप 32 बार चंद्रमा पर जा सकते हैं और वापस आ सकते हैं, तो यकीनन आपको हैरानी हो। लेकिन हैकरनून की रिपोर्ट में संभावना जताई गई है कि लोग अपने जीवन के 3 साल और 5 महीना खाने-पीने पर बिता रहे है, जो कि बेहद जरूरी है। वहीं जीवन के 5 साल और 4 महीने सोशल मीडिया पर बिता रहे है। जिसका अधिकतर हिस्सा गैर-जरूरी उद्देश्यों का है।

एक रिपोर्ट आपको चौंकाएगी कि हम अपने दिन के औसतन पांच घंटे फोन पर बिताते हैं। वास्तविक जिंदगी में ऐसे उदाहरण दिखना आम है। वहीं डॉक्टर कहते हैं कि कई सारी सहूलियतें देने वाली ये स्मार्ट डिवाइस आलसी से लेकर रोगी तक बना सकती है। लेकिन, हम इसे छोड़ने की कल्पना से ही बदहवास हो उठते हैं। इस पर विशेषज्ञों की क्या है राय, बता रही हैं किरण

  • 1.6 मिलियन दुर्घटनाएं होती हैं हर साल ड्राइविंग के दौरान मोबाइल के इस्तेमाल से।
  • सोशल मीडिया, मैसेजिंग व मनोरंजन ऐप्स की वजह से लोगों का फोन पर बिताया गया समय 51% से ज्यादा हो गया है। वहीं 80 फीसदी मिलेनियल्स जागने के तुरंत बाद फोन देखते हैं।
  • 56 फीसदी अमेरिकियों ने कहा कि यदि उनको 10% वेतन वृद्धि की पेशकश की जाए, तो भी वे एक महीने तक अपना फोन नहीं छोड़ सकते।
  • मैकगिल यूनिवर्सिटी में न्यूरोबॉयोलॉजी के प्रो. ओलिवर हाई कहते हैं कि एक बार जब आप अपनी मेमोरी का उपयोग करना बंद कर देंगे तो यह खराब हो जाएगी। मतलब जितना कम आप उन प्रणालियों का उपयोग करेंगे, जो संज्ञानात्मक लचीलेपन या एपिसोडिक यादों जैसी चीजों के लिए जिम्मेदार हैं, डिमेंशिया होने की आशंका उतनी ही अधिक होगी।
  • एक अन्य शोध के अनुसार हमारा दिमाग तेजी से याद रखने की क्षमता खो रहा है, जिसे ‘डिजिटल एमेशिया’ कहा जा रहा है, क्योंकि हम डेटा को याद रखने के लिए तकनीक पर निर्भर होते जा रहे हैं।

शोधों की मानें तो फोन से निकलने वाली नीली रोशनी आपकी बॉडी क्लॉक को खराब कर देती है, जिससे अपने सामान्य समय पर भी सोना मुश्किल हो जाता है। दरअसल, यह प्रकाश नींद के लिए जिम्मेदार हार्मोन मेलाटोनिन को दबा देता है, जिससे नींद की गुणवता प्रभावित होती है।

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