स्मार्टफोन कई देशों में बैन - अगर आप भी चलाते हैं स्मार्ट फोन तो हो जाए सावधान वरना

स्मार्टफोन कई देशों में बैन – अगर आप भी चलाते हैं स्मार्ट फोन तो हो जाए सावधान वरना

स्मार्टफोन कई देशों में बैन – अगर आप भी चलाते हैं स्मार्ट फोन तो हो जाए सावधान वरना:-अमेरिका में स्मार्टफोन के चलते बच्चों में 150% तक तनाव बढ़ा, फ्रांस में टीनएजर्स के लिए फोन बैन, ब्रिटेन में भी चर्चा

विश्व भर में बच्चों पर पड़ रहे स्मार्टफोन के दुष्प्रभाव पर बहस तेज हो गई है। ब्रिटेन-अमेरिका जैसे देशों में तो इस समस्या से निजात पाने के लिए नियम तक बनाने की बात हो रही है। दरअसल, ब्रिटेन में 12 साल के छोटे बच्चे तक के पास खुद का स्मार्टफोन है। यह समस्या कितनी बड़ी है, इसे एक उदाहरण से समझिए। दो महीने पहले ब्रिटेन की डेजी ग्रीनवेल और क्लेयर फर्नीहॉफ ने अपने बच्चों में स्मार्टफोन की लत कम करने के लिए एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया। जब उन्होंने इंस्टाग्राम पर इस मुहिम के बारे में पोस्ट किया, तो उनकी इस पहल में ब्रिटेन के 60 हजार पैरेंट जुड़ गए। ऐसे में इन लोगों ने मिलकर ‘स्मार्टफोन-फ्री चाइल्डहुड’ नामक ग्रुप बनाया। इस समूह का लक्ष्य बच्चों में स्मार्टफोन एडिक्शन को समाप्त करना है।

पिछले महीने अमेरिका में भी इस तरह की मुहिम चली थी। जब फ्लोरिडा राज्य ने 14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून पारित किया था। अब ब्रिटेन की सरकार भी एक नए कानून पर विचार कर रही है, जिसमें 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए स्मार्टफोन बिक्री पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। इस बहस से दो बातें साफ होती हैं। पहली स्मार्टफोन टीनएजर्स के जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। गैलप सर्वे के अनुसार अमेरिकी टीनएजर्स दिन के 5 घंटे सिर्फ सोशल मीडिया पर बिता रहे हैं।

दूसरी बात है कि पिछले कुछ सालों में समृद्ध देशों के टीनएजर्स में मेंटल हेल्थ और डिप्रेशन की समस्याएं बढ़ी हैं। 2010 के मुकाबले अमेरिका में डिप्रेशन के मामलों में 150 फीसदी की वृद्धि हुई है। 17 अमीर देशों में टीनएजर्स में आत्महत्या के मामले भी बढ़े हैं। यह इसलिए भी ध्यान देने योग्य है क्योंकि 2010 के बाद से ही स्मार्टफोन के चलन की शुरुआत हुई थी। कुछ रिसर्च सोशल मीडिया और खुशी के बीच सीधे संबंध की भी बात करते हैं। 2018 में स्टैनफोर्ड और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने फेसबुक से एक महीने दूर रहने का प्रयोग किया था। जिन लोगों ने खुद को प्लेटफॉर्म से दूर रखा, उन्होंने अधिक खुशी महसूस की। इन यूजर्स ने परिवार और दोस्तों को ज्यादा समय दिया।

हालांकि स्मार्टफोन बैन पर विशेषज्ञ बंटे नजर आते हैं। ‘अनलॉक्ड’ बुक के लेखक पीट एटचेल्स कहते हैं, सोशल मीडिया बैन करना सार्थक नहीं है क्योंकि हमें नहीं पता कि किसी भी तरह के प्रतिबंध में क्या-क्या शामिल किया जाएगा।’ वहीं स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के डॉ. मैथ्यू गेंट्जको कहते हैं, ‘बच्चों को कुछ हद तक स्मार्टफोन इस्तेमाल करने देना चाहिए। अपने दोस्तों के साथ वीडियो चैट जैसी गतिविधियों से उनमें कम्युनिकेशन भी बेहतर हो सकती है।’

2022 में जारी मैकाफी के ग्लोबल कनेक्टेड फैमिली अध्ययन के अनुसार, 10-14 वर्ष की आयु वर्ग के 83 फीसदी भारतीय बच्चे स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं। यह अंतरराष्ट्रीय औसत 76% से 7% अधिक था। इसके अलावा यूनेस्को ने भी टीनएजर्स के लिए ग्लोबल बैन की बात कही थी। यूएन एजुकेशन साइंस एंड कल्चरल एजेंसी की रिपोर्ट ने कहा था कि स्कूलों में स्मार्टफोन के उपयोग को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर देना चाहिए। कई देश ऐसे भी हैं जिन्होंने टीनएजर्स के लिए स्मार्टफोन बैन किया है। फ्रांस ने 2018 में 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए स्मार्टफोन बैन किया था। इसी साल नीदरलैंड्स ने भी स्कूलों में हर तरह के मोबाइल फोन बैन किए थे।

चीन में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है। 2050 तक यहां 50 करोड़ लोग 60 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले होंगे। अब चीन में बुजुर्गों के सामने एक चुनौती पनपी है। यह अल्जाइमर का खतरा है। दरअसल, चीन के 1 करोड़ लोगों को यह बीमारी है। वहीं 5 करोड़ से ज्यादा चीनी लोगों को दिमागी समझ से जुड़ी बीमारी है। 90 वर्षीय झांग चीन के हांग्जो प्रांत में रहते हैं। उन्होंने दो बार कैंसर को मात दी है। वे बताते हैं, ‘पिछले बार जब मुझे कैंसर हुआ था, तब डॉक्टर ने कहा था कि मेरे पास सिर्फ 18 महीने का समय बचा है।

वो अलग बात है कि इस बात को ही अब 16 साल पूरे हो गए हैं।’ झांग के स्वस्थ रहने के पीछे दो चीजें थीं। ‘नो एक्सरसाइज एंड नो स्मोकिंग।’ लेकिन अब झांग के सामने एक नया डर अल्जाइमर का है। झांग आगे कहते हैं, ‘जिस व्यक्ति को यह बीमारी होती है वह अपने परिवार-दोस्तों सभी को भूल जाता है। अंत में थक हारकर अकेले रहने लगता है। आजकल मुझे भी भूलने की समस्या होने लगी है। हर रोज अल्जाइमर का डर लगा रहता है।’

हालांकि, झांग के लिए समस्याएं कम हैं क्योंकि हांग्जो चीन के सबसे अमीर शहरों में से एक है। और झांग के होमटाउन गोंगशू में डिमेंशिया के लिए बेहतर उपचार उपलब्ध हैं क्योंकि यहां सरकारें ही डिमेंशिया के चेक-अप व उपचार के लिए सक्रिय हैं। अकेले गोंगशू में 16 हजार डिमेंशिया के मरीज हैं। यहां की औसत उम्र (83) भी चीन की राष्ट्रीय औसत उम्र से ज्यादा है। लेकिन गोंगशू सही मायने में एक अपवाद है।

क्योंकि चीन के अन्य शहरों में दिमाग से जुड़ी बीमारियों के लिए बेहतर इलाज की सुविधाएं नहीं हैं। गोंगशू में जो रेजिडेंशियल केयर सेंटर हैं, वो एक मरीज पर 5 हजार युआन तक चार्ज करते हैं। लेकिन सरकारी पेंशन स्कीम के अनुसार चीन में रिटायर्ड कर्मचारियों को सबसे अधिक 3600 युआन की राशि ही मिलती है। वहीं श्रमिकों और किसानों को तो सिर्फ 200 युआन तक की ही पेंशन दी जाती है। इसी वजह से कई बुजुर्ग रेजिडेंशियल केयर सर्विस से बाहर हो जाते हैं।

चीन की लाइफस्टाइल भी डिमेंशिया जैसी बीमारियों को दावत देती है। चीन के आधे वयस्क धूम्रपान करते हैं। हाई बीपी, डिप्रेशन और डायबिटीज सहित कई बीमारियां आम हैं। ये सभी डिमेंशिया के लक्षण हैं। मरीजों के लिए बीमा कवरेज खराब है। मौजूदा बीमा कवरेज अमूमन डिमेंशिया अल्जाइमर जैसी बीमारियों को नहीं जोड़ते। डिमेंशिया का पता लगाने वाले ब्रेन-इमेजिंग स्कैन महंगे हैं। इस जनवरी में अमेरिका और जापान के बाद चीन तीसरा देश बन गया, जिसने अल्जाइमर के नए इलाज लेकेनमैब को मंजूरी दी। लेकिन इसके इलाज में सालाना 28 हजार डॉलर खर्च आता है।

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